“मुझे सिर्फ 25 प्रतिशत ही दिखाई देता है, लेकिन मैंने कभी अपने सपनों को धुंधला नहीं होने दिया।” यह शब्द हैं उस युवक के, जो बचपन से ही दृष्टिबाधित है, मगर अपनी मेहनत और आत्मविश्वास से जीवन में नई रोशनी फैला रहा है।
बचपन में लोग उसे ‘अंधा-अंधा’ कहकर चिढ़ाते थे। स्कूल में शिक्षक जो कुछ भी ब्लैकबोर्ड पर लिखते थे, उसे पढ़ने के लिए उसे बोर्ड के बिलकुल पास जाकर खड़ा होना पड़ता था। कई बार सहपाठी उसका मज़ाक उड़ाते, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी।
संघर्ष की शुरुआत बचपन से
दृष्टि कमजोर होने के बावजूद उसने सामान्य स्कूल में ही पढ़ाई जारी रखी। परीक्षा में अक्षर पहचानने में कठिनाई होती थी, पर उसकी लगन और धैर्य ने उसे हमेशा आगे बढ़ाया। जहां बच्चे उसकी आंखों की कमी देखते थे, वहीं उसने अपनी इच्छाशक्ति और दृढ़ निश्चय को अपनी ताकत बनाया।
कबड्डी से आत्मविश्वास मिला
खेलों के प्रति उसका रुझान बचपन से था। जब वह कबड्डी खेलने जाता, तो साथी खिलाड़ी ताना मारते — “दिखता नहीं, तो खेलने क्यों आता है?” लेकिन वह हर बार मैदान में उतरता और खेल के प्रति अपनी लगन से सबको जवाब देता। धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाई और वह टीम का भरोसेमंद खिलाड़ी बन गया।
उसने बताया —
“जब मैंने मैदान में कदम रखा, तो मुझे लोग हंसते हुए देखते थे, लेकिन जब मैंने हार नहीं मानी, तो वही लोग मेरे लिए तालियां बजाने लगे।”
शिक्षा के लिए नहीं छोड़ी उम्मीद
कम दृष्टि के बावजूद उसने पढ़ाई जारी रखी और तकनीकी सहायता से आगे की शिक्षा हासिल की। आज वह न केवल खुद आत्मनिर्भर है, बल्कि अन्य दृष्टिबाधित बच्चों को भी शिक्षित करने और प्रेरित करने का काम कर रहा है।
सकारात्मक सोच ने बदला जीवन
उसका मानना है कि जीवन में कमी केवल तब होती है जब इंसान खुद अपने सपनों को छोड़ देता है। वह कहता है —
“मुझे भले ही दुनिया का 75 प्रतिशत हिस्सा नहीं दिखता, लेकिन मैं उस 25 प्रतिशत को इतना उजला बना दूंगा कि बाकी अंधेरा मायने नहीं रखेगा।”
समाज को संदेश
आज वह युवाओं के लिए प्रेरणा बन चुका है। वह कहता है कि लोगों की बातें सुनने के बजाय खुद पर भरोसा रखना चाहिए।
“लोगों ने मुझे ‘अंधा’ कहा, लेकिन मैंने उन्हें दिखा दिया कि रोशनी आंखों में नहीं, सोच में होती है।”
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