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धराली में जहां आया था सैलाब वहां अब है मलबे का ढेर, हवा में सड़ांध और अपनों का इंतज़ार करते लोग

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Asif Ali धराली में अपनों के लापता होने के बाद उनके मिलने की उम्मीद में बैठी महिलाएं

धराली में बीते पांच अगस्त को खीरगंगा से आई बाढ़ ने मिनटों में बाज़ार, होटल और घर बहा दिए. तबाही के साथ पीछे रह गए सिर्फ़ मलबे के ढेर, सदमे में डूबे वे लोग, जिनके अपनों का कोई पता नहीं चल पा रहा और कई सवाल, जिनके जवाब का अब भी इंतज़ार है.

उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले का धराली गाँव, जो कभी गंगोत्री यात्रा मार्ग पर चहल-पहल से भरा एक अहम पड़ाव था, आज सन्नाटे और बर्बादी का प्रतीक बन चुका है.

बीबीसी हिन्दी ने धराली में धंसे मकानों और मलबे के बीच से गुज़रते हुए उन परिवारों से बात की, जिन्होंने चंद मिनटों में ही अपना सबकुछ खो दिया.

स्थानीय लोगों के मुताबिक़, पांच अगस्त की दोपहर खीरगंगा के ऊपर बादल फटने से आई तीन लहरों वाली बाढ़ ने पलक झपकते ही पूरे गाँव को निगल लिया. दर्जनों घर, होटल और सेब के बगीचे बह गए.

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हादसे के आठ दिन बीतने के बाद भी रेस्क्यू टीमें अब भी टूटे घरों, होटलों और दलदली मलबे के बीच संघर्ष कर रही हैं. गाँव के कई लोग अपने लापता परिजनों की ख़बर पाने की उम्मीद में मलबे के किनारे घंटों खड़े नज़र आते हैं.

तबाही के बाद की तस्वीर image Asif Ali यह तीन मंजिला मकान धराली से बह कर क़रीब ढाई सौ मीटर दूर आकर मलबे में फंस गया

कभी होटलों और दुकानों से गुलज़ार रहने वाला धराली का बाज़ार अब मलबे और टूटी लकड़ियों का ढेर है. हवा में नमी और सड़ांध घुली हुई है- जैसे यह इलाक़ा अब भी ख़ौफ़नाक मंज़र की गवाही दे रहा हो.

कहीं ढही हुई दीवारों के बीच कपड़े और बर्तन बिखरे हैं, तो कहीं लकड़ी और लोहे के टुकड़ों के बीच खिलौने दबे हैं.

40–50 फीट ऊँचा मलबा कई जगह दलदल बन चुका है. पांव रखते ही ज़मीन धंसने का डर है. दो-तीन मंज़िला इमारतें या तो आधी ग़ायब हो चुकी हैं, या सिर्फ़ छत या खिड़की का एक कोना दिखाई देता है.

यहाँ हर क़दम पर या तो अपनों की तलाश में जुटे लोग दिखते हैं, या एसडीआरएफ़, एनडीआरएफ़ और सेना के जवान. यहां मलबा हटाने वाली मशीनों का शोर लगातार गूंजता है.

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image Asif Ali धराली के मलबों के नीचे तलाश अभियान

गाँव के एक कोने में हेल्प डेस्क बनाया गया है. कुछ पुलिसकर्मी लापता लोगों के नाम और उनकी पहचान दर्ज कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ सोमेश्वर देवता के मंदिर के प्रांगण में राहत सामग्री बाँटी जा रही है.

इसी प्रांगण में बड़े-बड़े बर्तनों में खाना बन रहा है- यही अब कई परिवारों का सहारा है.

जब हम धराली के स्थानीय लोगों के बीच पहुँचे, तो थकान और डर से भरे चेहरों ने हमें घेर लिया. यहीं मिले सतेंद्र पंवार, जिनकी आवाज़ अब भी 5 अगस्त की दोपहर के डर को बयां कर रही थी.

वे कहते हैं, "5 अगस्त की त्रासदी में सौ से अधिक मौतें होने की आशंका है. मैं ख़ुद उस दिन बड़ी मुश्किल से बच पाया.. या कहें कि मौत ने मुझे छोड़ दिया. लेकिन अब मैं दोबारा नहीं मरना चाहता."

सतेंद्र का डर अब भी ज़िंदा है. वे बताते हैं कि पिछली बारिश की रात भी गाँव के लोग भूखे-प्यासे जंगल में रहे, क्योंकि सबको डर था कि पानी फिर आ सकता है.

"गाँव में पहले पचास से अधिक घर थे, अब सिर्फ़ पाँच या छह बचे हैं. इन्हीं में सब लोग मिलकर रह रहे हैं. राहत सामग्री से ही गुज़ारा हो रहा है, इसके अलावा हमारे पास कुछ नहीं बचा."

धराली अब सिर्फ़ एक बाढ़ग्रस्त गाँव नहीं, बल्कि दर्जनों कहानियों का मलबा है, जिनमें ज़िंदगी, मौत और उम्मीद तीनों दबी हुई हैं.

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उम्मीद और अनिश्चित कल का इंतज़ार image Asif Ali धराली में जो लोग बच गए हैं उन्हें भी भविष्य को लेकर आशंका है

धराली के कई परिवार अब अपने ही गाँव में दूसरों के घरों में शरण लिए हुए हैं. कुछ लोग तो दिन का अधिकांश समय मलबे के पास बिताते हैं - इस उम्मीद में कि कहीं से लापता परिजनों की कोई ख़बर मिल जाए.

धर्मेंद्र सिंह नेगी उन्हीं में से एक हैं. हर सुबह वे दूर-दूर तक फैले मलबे के सामने खड़े होकर अपने बेटे का नाम पुकारते हैं.

वे बताते हैं, "मेरा 30 साल का बेटा भी लापता है. इसके अलावा कई नेपाली और बिहारी मज़दूर भी भागते-भागते लापता हो गए. मैंने एसडीआरएफ से बेटे को ढूंढने की गुहार लगाई है. उन्होंने उस जगह निशान लगाया है, लेकिन कहते हैं कि पानी कम होने पर ही खोज करेंगे."

नेगी का 12 कमरों वाला होटल और सेब के बगीचे बाढ़ में बह गए.

वे याद करते हैं, "एक समय पर यह बाज़ार क्या था और आज यही बाज़ार श्मशान बन गया है. सरकार पाँच लाख मुआवज़ा देने की बात कर रही है, लेकिन इससे किसी का भला नहीं होगा. हमें यहाँ से विस्थापित कर किसी सुरक्षित जगह पर बसाया जाए- कम से कम सिर पर छत तो होगी."

गाँव के लोग कहते हैं कि खीरगंगा में बनी नई झील और बरसात का मौसम, दोनों मिलकर अनिश्चितता को और बढ़ा रहे हैं. उनकी आँखों में एक ही सवाल है - "हम अपने घर कब लौटेंगे?"

image Asif Ali/BBC

धराली की रहने वाली सुशीला का घर इस बाढ़ में बच गया, लेकिन वे भी निश्चिंत नहीं हैं. वे कहती हैं, "अगर दोबारा पानी आया तो मेरा घर भी ढह जाएगा."

इस समय उनके घर में 40–50 लोग रह रहे हैं, जो मंदिर में रोज़ बन रहा खाना खाकर गुज़ारा कर रहे हैं.

"अब सरकार से हमारी यही गुज़ारिश है कि हमारे रहने का कोई और इंतज़ाम करे," सुशीला की आवाज़ में थकान और चिंता स्पष्ट झलकती है.

धराली आपदा के बाद लापता लोगों की सूची में बड़ी संख्या नेपाली मूल के मज़दूरों की मानी जा रही है.

गंगोत्री में काम करने वाले दीपक की हमसे मुलाक़ात धराली से तीन किलोमीटर पहले हर्षिल में हुई.

उन्होंने बीबीसी हिन्दी को बताया, "नहीं भी तो क़रीब दो सौ नेपाली लोग धराली में काम करते थे, बाढ़ आने के बाद से उनका कोई अता-पता नहीं है. इनमें पाँच तो मेरे अपने लोग भी हैं, जिनमें मेरे एक चाचा भी शामिल हैं."

दीपक कहते हैं कि आपदा के बाद से काम पूरी तरह बंद हो गया है, और रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी करना भी मुश्किल हो रहा है.

"खाने-पीने से लेकर रहने तक की कई परेशानियाँ हैं. अब तो बस उम्मीद ही है कि लापता लोग कहीं ज़िंदा मिल जाएँ."

'बस उम्मीद है कि नाम लिखवाने के बाद वो मिल जाएँ' image Asif Ali धराली में अपनों की तलाश में लोग दिनभर मलबों के पास रहते हैं

धराली में लगे सहायता डेस्क पर भीड़ में खड़े नेपाली मूल के प्रकाश चिंता से भरे नज़र आते हैं. वे उन लोगों में हैं जो अपने लापता परिजनों की जानकारी देने यहाँ पहुँचे हैं.

बीबीसी हिन्दी से बात करते हुए उन्होंने कहा, "मैं अपने भाई और उसके साथी के गुम होने की रिपोर्ट देने आया हूँ, ताकि उनकी तलाश हो सके. दोनों के नाम मैंने यहाँ लिखवा दिए हैं."

डेस्क पर मौजूद अधिकारियों ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि जानकारी दर्ज कर ली गई है और वह तलाश करेंगे. आश्वासन के बावजूद प्रकाश की आँखों में साफ़ दिखता है कि अनिश्चितता का बोझ कम नहीं हुआ है.

धराली का भूगोल और तबाही का नक्शा image Asif Ali धराली में मौजूद सोमेश्वर देवता के इसी मंदिर में 5 अगस्त को मेले का आयोजन होना था

गंगोत्री यात्रा मार्ग पर, गंगोत्री से लगभग बीस किलोमीटर पहले बसा धराली कभी इस मार्ग का सबसे जीवंत और समृद्ध पड़ाव था. तीर्थयात्री और पर्यटक यहां रुकते, बाज़ार में चहल-पहल होती थी, और सेब के बगीचों में जीवन की मिठास घुली रहती थी.

लेकिन 5 अगस्त को यह सब एक ही दोपहर में बदल गया. गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग का हिस्सा पूरी तरह मलबे में दब गया है. अब एसडीआरएफ, एनडीआरएफ और सेना के जवान एक नई सड़क बनाने में जुटे हैं, ताकि गाँव का संपर्क फिर बहाल हो सके.

जिस दिन आपदा आई, उस सुबह सोमेश्वर देवता के मंदिर में मेला था. गाँव के लोग तैयारियों में व्यस्त थे और आसपास के इलाकों से भीड़ जुटने वाली थी.

लेकिन लगभग डेढ़ बजे, खीरगंगा से बाढ़ का सैलाब सीधी रेखा में आया और उसके सामने जो भी घर, दुकान या होटल था, वह बह गया.

गाँव के बीच अब 40–50 फीट ऊँचा मलबे का पठार बन गया है. कुछ जगह यह दलदल जैसा है. रेस्क्यू टीमें ऐसे इलाकों को लाल निशान से चिह्नित कर रही हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि मलबे के नीचे अब भी लोग और मवेशी दबे हैं.

धराली के ठीक सामने, पहाड़ी पर मुखबा गाँव है- जिसे हिंदू मान्यताओं में 'गंगा का मायका' कहा जाता है. यहाँ के लोगों ने ऊपर से पानी का काला बवंडर आते देख नीचे वालों को आवाज़ दी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.

मुखबा और धराली को जोड़ने वाला एकमात्र झूला पुल भी बाढ़ में जर्जर हो गया है. बुधवार की रात भागीरथी का जलस्तर बढ़ने पर इसके टूटने की अफ़वाह फैल गई थी.

अगर यह पुल गिरा तो दोनों गाँवों का संपर्क पूरी तरह टूट जाएगा, और यहाँ तक पहुँचने के लिए 10 किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा. राहत सामग्री भी अभी इसी पुल के रास्ते आ रही है.

मलबे के बीच तलाश और चुनौतियाँ image Asif Ali धराली में तलाश अभियान में लगे कर्मी

धराली में 5 अगस्त को आई तबाही के बाद सरकारी मौत के आंकड़े लगातार बदलते रहे. पहले उत्तरकाशी के जिलाधिकारी ने चार मौतों की पुष्टि की.

12 अगस्त को उत्तरकाशी डीएम प्रशांत आर्य ने बीबीसी हिन्दी से कहा, "अब तक केवल एक मौत की आधिकारिक पुष्टि है."

लेकिन गाँव में लोगों के दावे अलग हैं. उत्तरकाशी ज़िला प्रशासन के आंकड़ों के मुताबिक़, 68 लोग, जिनमें 25 नेपाली मूल के श्रमिक भी शामिल हैं, अब भी लापता हैं. अब तक 1308 स्थानीय और यात्री लोगों को सुरक्षित निकाला जा चुका है.

गाँव में आईटीबीपी, सेना, एसडीआरएफ़ और एनडीआरएफ़ की टीमें दिन-रात लगी हैं. मगर 40–50 फीट ऊँचे मलबे और कई जगह दलदल बने हिस्से ऑपरेशन को बेहद धीमा कर रहे हैं.

आईटीबीपी के डिप्टी कमांडेंट दीपक कुमार ने बीबीसी हिन्दी को बताया, "अब रेस्क्यू ऑपरेशन ख़त्म हो चुका है, हम सर्चिंग मोड में हैं. क्योंकि बहुत लोग अब भी मिसिंग हैं. अब तक चार मवेशियों के शव बरामद हुए हैं."

दीपक कुमार के मुताबिक़, रेस्क्यू के शुरुआती दिनों में एक समय में सौ से ज़्यादा लोग काम कर रहे थे. "अब यह तकनीकी सर्च ऑपरेशन है, इसमें कम लोग भी प्रभावी ढंग से काम कर सकते हैं."

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आपदा के कारणों की पड़ताल के लिए कमेटी गठित image Asif Ali धराली में बड़ी संख्या में लोग और मवेशी लापता हैं

धराली की त्रासदी के चार दिन बाद, राज्य सरकार ने आपदा के कारणों की जांच के लिए विशेषज्ञों की एक टीम बनाई थी. यह टीम बुधवार, 13 अगस्त को धराली पहुँची और पूरे प्रभावित इलाके का स्थलीय निरीक्षण किया.

टीम में उत्तराखंड लैंडस्लाइड मैनेजमेंट एंड मिटिगेशन सेंटर और वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के विशेषज्ञ शामिल हैं.

राज्य के आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास सचिव विनोद कुमार सुमन ने बताया, "विशेषज्ञों की टीम ने प्रभावित क्षेत्र में कई जगह जाकर आपदा से हुए नुकसान, उसकी प्रवृत्ति और संभावित कारणों की मौके पर गहन पड़ताल की. उन्होंने मलबे के नमूने लिए, खीर गंगा (खीरगाड़) के प्रवाह क्षेत्र और मलबे के फैलाव का भी आकलन किया."

उत्तरकाशी में 5 अगस्त को आई तबाही की सूचना देते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर धामी ने सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए जानकारी देते हुए 'बादल फटने' को हादसे के लिए जिम्मेदार बताया था.

हालांकि, देहरादून के मौसम विज्ञान केंद्र ने इस तर्क को खारिज कर दिया.

अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस घटना के पीछे असली कारण क्या हो सकते हैं?

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image Asif Ali तबाही के बाद धराली पूरी तरह बदल गया है

इस बीच, धराली के घटना स्थल पर विशेषज्ञों की टीम, यूएलएमएमसी और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक पहुंचे. उन्होंने मलबे के नमूनों की जांच की और यह जानने की कोशिश की है कि खीरगंगा में पानी के साथ आए मलबे के पीछे क्या कारण हो सकते हैं.

देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉक्टर मनीष मेहता ने बीबीसी हिन्दी को बताया,"खीरगंगा के ऊपर एक ग्लेशियर सर्ज है जो कभी खीरगंगा से ऊपर ग्लेशियर रहा होगा, संभवत: इसका क्षेत्र धराली तक फैला रहा होगा."

उन्होंने कहा, "जब कोई ग्लेशियर किसी वैली में होता है तो वह ठोस पर्वत को इरोड करता है, जिससे पर्वत बेहद महीन टुकड़ों में टूटते हैं. यह रेत बहुत ठोस नहीं होता है. एक तरह से भुरभुरी मिट्टी, ऊंचाई वाली जगहों पर जमा होती है जो पानी के बहाव में तेजी से नीचे की तरफ़ फिसलती है."

डॉक्टर मेहता के अनुसार, यह क्षेत्र पूरी तरह टेक्टोनिक एक्टिव वैली है. यहां एक थ्रस्ट मौजूद है. भूगर्भीय दृष्टि से, गाद की परत के नीचे हार्ड रॉक है और ऊपर सॉफ्ट रॉक. इस वैली की भौगोलिक संरचना भी ख़ास है नीचे से संकरी और ऊपर से चौड़ी है.

मनीष मेहता ने स्पष्ट किया कि "ऊपर से आया मलबा वास्तव में ग्लेशियर मलबा था, जो फ्लश फ्लड के रूप में आया."

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, "साल 2021 की ऋषिगंगा आपदा में भी यही प्रक्रिया देखने को मिली थी, जब रौंती ग्लेशियर से टूटकर आया मलबा था."

image Asif Ali धराली में 40–50 फीट ऊँचा मलबा कई जगह दलदल बन चुका है

धराली आपदा के बाद इसरो ने अपने सैटेलाइट (कारटोसेट 2-एस) से तस्वीरें लीं और उन्हें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर साझा किया.

इन तस्वीरों के आधार पर डॉ. मेहता ने कहा कि फ्लश फ्लड, लैंडस्लाइड और एवलांच जैसी घटनाएं पूरी तरह से प्राकृतिक होती हैं, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप इन्हें आपदा का रूप दे देता है.

उन्होंने समझाया,"कई अनजान जगहों पर जलोढ़ पंखे देखने को मिलते हैं. जलोढ़ पंख तब बनते हैं जब नदियाँ और नालियाँ पहाड़ी क्षेत्रों से नीचे उतरते समय तलछट जमा करती हैं, जिससे एक पंखे के आकार का जमाव बनता है."

"ये प्रक्रियाएं पृथ्वी की उत्पत्ति से ही चल रही हैं. बड़े-बड़े टैरेस (सीढ़ीदार खेत) भी नदियों के मलबे से बने हैं. लेकिन लोगों को समझना होगा कि जहां भी भुरभुरापन वाली जगह हो, वहां बसावट नहीं होनी चाहिए."

डॉ. मेहता का मानना है कि धराली के खीरगंगा में आए मलबे के पीछे लगातार बारिश भी एक अहम वजह हो सकती है.

हालांकि, उन्होंने कहा कि जब तक कोई विशेषज्ञ मौके पर जाकर जांच न करे, तब तक पुख्ता निष्कर्ष निकालना मुश्किल है.

वहीं, लोगों में फैली एक आम ग़लतफहमी को दूर करते हुए उन्होंने बताया कि बादल फटने का मतलब यह नहीं कि अचानक आसमान से कोई बादल फट गया.

उन्होंने कहा,"अगर किसी निश्चित इलाके में एक घंटे में 100 मिमी से अधिक बारिश होती है, तो उसे क्लाउड बर्स्ट कहा जाता है."

धराली की आपदा ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि हिमालयी क्षेत्रों में प्राकृतिक खतरों के बीच मानवीय गतिविधियों को कैसे संतुलित किया जाए.

विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लेशियर सर्ज, भूगर्भीय संरचना, रेतीली और भुरभुरी मिट्टी, टेक्टोनिक गतिविधियां और भारी बारिश-ये सभी मिलकर आपदा को जन्म दे सकते हैं.

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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