अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को लग रहा है कि रूस और भारत को उन्होंने चीन के हाथों खो दिया है. क्या कभी रूस अमेरिका के साथ था?
फिर ट्रंप को क्यों लग रहा है कि उन्होंने रूस को खो दिया? क्या भारत चीन के साथ हो गया है? शुक्रवार को ही भारत के चीफ़ ऑफ डिफेंस स्टाफ़ जनरल अनिल चौहान ने कहा कि चीन के साथ सीमा विवाद सबसे बड़ी चुनौती है.
ऐसे में कई लोग ट्रंप की डिप्लोमैसी और भारत के प्रति उनकी समझ को लेकर सवाल उठा रहे हैं. अमेरिकी प्रशासन की तरफ़ से भारत के प्रति कई अपमानजनक बातें कही जा रही हैं.
शुक्रवार को अमेरिका के वाणिज्य मंत्री होवार्ड लुटनिक ने ब्लूमबर्ग से कहा, ''एक या दो महीने में भारत बातचीत की टेबल पर आएगा और सॉरी बोलेगा. भारत ट्रंप के साथ समझौता करने की कोशिश करेगा. इसके बाद ट्रंप तय करेंगे कि मोदी के साथ कैसे डील करना है.''
होवार्ड की इस भाषा पर थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की सीनियर फेलो तन्वी मदान ने एक्स पर लिखा है, ''भारत के प्रति अमेरिका की अपमानजनक भाषा और सार्वजनिक रूप से दबाव बनाने की रणनीति हमेशा बेअसर रही है. बल्कि कई बार उसका उलटा नतीजा निकला है.''
इस बार अमेरिकी मीडिया से लेकर दुनिया भर के कई एक्सपर्ट्स कह रहे हैं कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद पीएम मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप के संबंध में ज़्यादा तनातनी आई है.
अमेरिकी अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स ने 30 अगस्त की अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, ''तब ट्रंप कनाडा से जी-7 समिट में शामिल होने के बाद लौटे थे और पीएम मोदी से फ़ोन पर 35 मिनट बात हुई थी. तब मोदी कनाडा में थे. ट्रंप ने मोदी को वॉशिंगटन आने का न्योता दिया लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री ने स्वीकार नहीं किया. भारतीय अधिकारियों को यह डर था कि ट्रंप मोदी और पाकिस्तानी सेना प्रमुख को हाथ मिलाने पर मजबूर कर सकते हैं.''
''उसी वक़्त व्हाइट हाउस में पाकिस्तानी फ़ील्ड मार्शल आसिम मुनीर को लंच पर बुलाया गया था. एक भारतीय अधिकारी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि इसी से पता चलता है कि ट्रंप भारत पाकिस्तान के बीच विवाद और उनके इतिहास की संवेदनशीलता को लेकर कितने बेपरवाह हैं.''
कहा जा रहा है कि पीएम मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप के बीच की यह बातचीत दोनों के संबंधों में एक अहम घटना साबित हुई.
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डोनाल्ड ट्रंप जब पिछले साल नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव जीते तो बहुसंख्यक भारतीय ख़ुश थे. कुछ दक्षिणपंथी संगठन तो ट्रंप के लिए पूजा और हवन तक कर रहे थे. लेकिन कुछ महीने बाद ही ट्रंप ने जिस तरह से भारत को हैंडल किया, उससे ट्रंप के प्रशंसक निराश हैं.
हिन्दू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से बहुत ख़ुश थे लेकिन अब वह दुखी हैं.
विष्णु गुप्ता कहते हैं, ''ट्रंप इस्लामिक अतिवाद को लेकर सख़्त थे, इसलिए हम उनका समर्थन कर रहे थे. लेकिन अब तो वह पाकिस्तान के साथ गलबहियां कर रहे हैं. हमें उनका पहला कार्यकाल अच्छा लगा था.''
ट्रंप के दोबारा चुनाव जीतने पर केवल विष्णु गुप्ता ही ख़ुश नहीं थे बल्कि ज़्यादातर भारतीय सकारात्मक थे.
इस साल जनवरी में यूरोपियन काउंसिल फॉर फॉरन रिलेशन्सने एक सर्वे कराया था. इस सर्वे में 84 प्रतिशत भारतीयों ने बताया था कि ट्रंप की वापसी उनके देश के हित में होगी.
वहीं इंडोनेशिया में केवल 30 फ़ीसदी, ईयू में 22 फ़ीसदी और यूके में 15 फ़ीसदी लोगों ने ही कहा था कि ट्रंप की वापसी उनके देश के हित में होगी. लेकिन भारत के ख़िलाफ़ 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाए जाने के बाद ट्रंप के प्रति लोगों की राय बदलती दिख रही है. भारत के कई इलाक़ों में ट्रंप का पुतला जलाया गया है.
लेकिन बात केवल आम लोगों की नहीं है. भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर जाने-माने डिप्लोमैट हैं. दुनिया के सबसे ताक़तवर देशों में भारत के राजदूत रह चुके हैं. एस जयशंकर ने भी ट्रंप के चुनाव जीतने पर पिछले साल नवंबर में कहा था, ''मैं जानता हूँ कि कई देश अमेरिका को लेकर नर्वस हैं लेकिन भारत उन देशों में से नहीं है.''
भारत में आम से लेकर ख़ास तक ट्रंप को लेकर इतना सकारात्मक क्यों थे? ऐसा भी नहीं है कि ट्रंप का पहला कार्यकाल भारत के लिए बहुत अच्छा था. ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में भारत को जीएसपी से बाहर कर दिया था.
जीएसपी (जनरलाइज़्ड सिस्टम ऑफ़ प्रीफ़रेंस) के तहत भारत की कुछ वस्तुओं को अमेरिका का ड्यूटी फ्री मार्केट मिलता था.
ट्रंप ने ईरान से भारत को तेल आयात करने से भी रोक दिया था. ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में भी कश्मीर पर मध्यस्थता की बात कही थी. इसके बावजूद ज़्यादातर भारतीय और सत्ताधारी पार्टी के नेता ट्रंप को भारत के हक़ में क्यों मान रहे थे?
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नेपाल और वियतनाम में भारत के राजदूत रहे रंजीत राय कहते हैं कि किसी देश से कितनी गर्मजोशी है, इसका पता तो सरकार के स्तर पर एंगेजमेंट से ही लगता है.
रंजीत राय कहते हैं, ''अमेरिका में 'हाउडी मोदी' हो रहा था और गुजरात में 'नमस्ते ट्रंप.' ये भी बताया जा रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रपति ट्रंप से निजी स्तर पर बहुत अच्छे संबंध हैं. जब ट्रंप से भारत की सरकार को बहुत दिक़्क़त नहीं थी तो जनता भी नकारात्मक क्यों रहेगी. अगर ट्रंप के इस टर्म में हालात देखें तो ऐसा ही लगता है कि भारत का आकलन बिल्कुल ग़लत था लेकिन किसी को अंदाज़ा भी नहीं था कि अमेरिका भारत के ख़िलाफ़ 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगा देगा.''
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर रहे एके पाशा कहते हैं कि ट्रंप कई बार मुस्लिम विरोधी बातें भी करते थे, इसलिए भी भारत का एक तबका उन्हें पसंद करता था.
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ''ट्रंप के लिए जो हवन और पूजा कर रहे थे, वे मुस्लिम विरोध के नाम पर ही समर्थन कर रहे थे. लेकिन उन्हें पता होना चाहिए था कि ट्रंप ऐसी बातें घरेलू राजनीति के लिए कर रहे थे.''
रंजीत राय मानते हैं कि बात केवल टैरिफ़ और रूस से तेल लेने भर की नहीं है. वह कहते हैं, ''मामला अब पर्सनल हो चुका है. ट्रंप को शांति का नोबेल सम्मान चाहिए. ट्रंप चाहते थे कि भारत युद्धविराम का क्रेडिट दे. नरेंद्र मोदी भारत के लोकप्रिय नेता हैं और क्रेडिट देने का जोखिम नहीं ले सकते थे."
"भारत के प्रधानमंत्री ने जो किया, वह भारत की विदेश नीति के मुताबिक़ ही है लेकिन ट्रंप ने पर्सनल इगो का सवाल बना दिया है.''
जेम्स क्रैबट्री अमेरिकी पत्रिका फॉरन पॉलिसी के कॉलमनिस्ट हैं. जेम्स ने 27 अगस्त को फ़ॉरन पॉलिसी में लिखा था, ''भारत को लगता था कि वह ट्रंप को भी मैनेज कर लेगा. लेकिन मोदी की टीम को देर से ही सही, उसे ट्रंप के मामले में अपने ग़लत आकलन का अहसास हो गया है.''
''भारत को अमेरिका के क़रीब रखना मोदी के लिए भारत के भीतर राजनीतिक रूप से जोखिम भरा हो सकता है. भारत की विदेश नीति पारंपरिक रूप से गुटनिरपेक्ष रही है. ट्रंप ने जिस तरीक़े से संबंधों को एक झटके में ख़त्म किया, वह भारत के भीतर राजनीतिक रूप से हंगामा खड़ा करने वाला रहा है.''
ट्रंप ने तेज़ वृद्धि दर वाली भारत की अर्थव्यवस्था की तुलना रूस की अर्थव्यवस्था से करते हुए मृत बताया. अमेरिका के वित्त मंत्री ने भारत को मुनाफ़ाखोर कहा और ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो ने यूक्रेन वॉर को मोदी वॉर कहा.
सबसे हाल में शुक्रवार को राष्ट्रपति ट्रंप ने ट्रुथ सोशल पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर पोस्ट कर लिखा है, ''ऐसा लग रहा है कि हमने भारत और रूस को संदिग्ध चीन के हाथों खो दिया है. उम्मीद करता हूं कि इनकी सोहबत सुखद और लंबे समय के लिए होगी.''
दरअसल, पीएम मोदी 31 अगस्त से एक सितंबर तक एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन) समिट में शामिल होने चीन गए थे. इस समिट में रूसी राष्ट्रपति पुतिन भी शामिल हुए थे.
राष्ट्रपति पुतिन, शी जिनपिंग और पीएम मोदी तीनों एक साथ बात करते हुए भी दिखे थे. पीएम मोदी ने ही बातचीत की तस्वीर एक्स पर पोस्ट की थी. ट्रंप ने इसी दौरे का हवाला देकर ट्रुथ पर तंज़ किया है.
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ट्रंप की इस टिप्पणी पर भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ''ट्रंप एससीओ समिट को लेकर काफ़ी परेशान दिख रहे हैं. लेकिन क्या अमेरिकी प्रशासन में कोई ऐसा नहीं है, जो उनको रणनीति को लेकर सलाह दे सके? भारत की विदेश नीति को लेकर या ट्रंप के काउंटरप्रोडक्टिव टैरिफ़ वॉर पर जो वह अमेरिका के मित्र देशों तक पर लगा रहे हैं?"
ट्रंप ने व्हाइट हाउस के पर्सनल डायरेक्टर सर्जियो गोर को भारत के राजदूत के लिए नामांकित किया है. पहली नज़र में ऐसा लगता है कि सर्जियो ट्रंप के वफ़ादार हैं तो उनके ज़रिए भारत को संबंध सुधारने का मौक़ा मिल सकता है. लेकिन कई विशेषज्ञ मान रहे हैं कि जिस तरह से गोर की नियुक्ति होने जा रही है, वह भी भारत को परेशान करने वाला है.
गोर को भारत के अलावा दक्षिण और मध्य एशिया की ज़िम्मेदारी मिली है. जब भारत अमेरिका की नज़र में ख़ुद को पाकिस्तान से बिल्कुल अलग देखना चाहता है, ऐसे वक़्त में गोर को भारत के साथ दक्षिण एशिया की भी ज़िम्मेदारी दे दी है.
जब जयशंकर से गोर की नियुक्ति को लेकर पूछा गया तो उन्होंने कहा, ''हाँ, मैंने भी इसके बारे में पढ़ा है.''
इससे पता चलता है कि अमेरिकी अधिकारियों ने गोर का नाम सार्वजनिक करने से पहले भारत को सूचित नहीं किया था. अब तक परंपरा थी कि किसी के नाम को फ़ाइनल करने से पहले दोनों देश एक दूसरे को बताते थे.
भारत के जाने-माने डिप्लोमैट और पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने भी सर्जियो के नामांकित किए जाने के तरीक़े और उन्हें मिली अतिरिक्त ज़िम्मेदारी को लेकर सवाल उठाया है.
श्याम सरन ने से बात करते हुए कहा, ''यह डिप्लोमैटिक प्रैक्टिस का हिस्सा है कि जब आप किसी देश में राजदूत की नियुक्ति करते हैं तो पहले उस नाम का प्रस्ताव गोपनीय तरीक़े से भेजते हैं. इसके बाद वह देश अपनी राय देता है और फिर अप्रूवल होता है. लेकिन यहाँ तो ट्रंप ने एकतरफ़ा घोषणा कर दी.''
गोर को दक्षिण और मध्य एशिया की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी मिलने पर श्याम सरन कहते हैं, ''आप भारत जैसे अहम देश में एक ऐसे राजदूत को भेज रहे हैं, जिसके पास और भी ज़िम्मेदारियां होंगी. ऐसा लग रहा है कि भारत को पार्ट टाइम राजदूत दिया गया है. यह तो बिखरी हुई डिप्लोमैसी होगी कि आप दिल्ली में बैठकर भारत-पाकिस्तान की भी बात करेंगे और और भारत-बांग्लादेश की भी. अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ. हम इसका स्वागत तो नहीं कर सकते हैं.''
क्या ट्रंप को मोदी प्रभावित नहीं कर पाए?पेन इंटरनेशनल बोर्ड के मेंबर और जाने-माने लेखक सलिल त्रिपाठी ने अमेरिकी मैगज़ीन टाइम की वेबसाइट पर एक आर्टिकल में लिखा है, ''भारत के लिए सबक़ है कि विदेश नीति गलबहियों से नहीं बल्कि ठोस हितों से आगे बढ़ती है. ट्रंप के लिए कोई भी रिश्ता पवित्र नहीं है. उनके लिए सौदेबाज़ी ही मायने रखती है. मोदी को लगा था कि वह ट्रंप को प्रभावित कर लेंगे. ट्रंप को भी प्रशंसा पसंद है लेकिन आख़िरकार यह पर्याप्त नहीं है.''
सलिल त्रिपाठी ने लिखा है, ''लंबे समय से भारत की विदेश नीति रणनीतिक स्वायत्तता के सिद्धांत पर आधारित रही है. लेकिन ऐसी स्वायत्तता की क़ीमत भी चुकानी होती है और हम इसे देख भी रहे हैं. ये टैरिफ़ याद दिला रहे हैं कि भारत के प्रभाव और अर्थव्यवस्था में मज़बूती आई है लेकिन रणनीतिक प्रासंगिकता इस हद तक नहीं बढ़ी है कि अपने हिसाब से हर फ़ैसला कर सके.''
''भारत की विदेश नीति इतनी स्वतंत्र है कि पश्चिम को रास नहीं आती. कई सारे पश्चिमी उत्पादों के लिए भारत का बाज़ार अब भी बंद है. भारत में लाल फ़ीताशाही के कारण विदेशी कारोबार फल फूल नहीं रहा है. भारत के उद्योग अब भी बाहरी दबाव को झेल पाने में सक्षम नहीं हैं.''
लेकिन बात केवल ट्रंप के आकलन में भारत की चूक की नहीं है. कई लोग मान रहे हैं कि ट्रंप भी भारत को समझने में चूक कर रहे हैं. थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की सीनियर फेलो तन्वी मदान कुछ ऐसा ही मानती हैं.
मदान ने एक्स पर लिखा है, ''चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2020 में जो ग़लती की थी, वही ग़लती ट्रंप करते दिख रहे हैं. ट्रंप भारत को एक छोटे देश या एक छोटी शक्ति के रूप में देख रहे हैं और उसी तरह पेश आ रहे हैं. दूसरी तरफ़ ये उम्मीद भी कर रहे हैं कि भारत किसी छोटे देश की तरह ही प्रतिक्रिया देगा. लेकिन भारत न तो छोटा देश है और न ही ख़ुद को ऐसा देखता है और न ही ऐसी प्रतिक्रिया देगा.''
अमेरिकी पत्रिका फॉरन पॉलिसी के कॉलमनिस्ट जेम्स क्रैबट्रीकहते हैं, ''भारत मल्टी-अलाइनमेंट यानी सभी गुटों के साथ रहने की नीति पर चलता है. यानी पश्चिम के साझेदारों के साथ भी अच्छे संबंध रखने हैं और साथ में पुतिन से भी रिश्तों में भरोसा बनाए रखना है. भारत ईरान से भी दूर नहीं होना चाहता है.''
''बाइडन प्रशासन में अमेरिका ने भारत की इस नीति को बर्दाश्त किया और उसकी रणनीतिक अहमियत को स्वीकार किया था. लेकिन ट्रंप ने इस नीति को छोड़ दिया और भारत के ख़िलाफ़ रूस से तेल ख़रीदने के बदले में 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ़ लगा दिया.''
अमेरिका और भारत के संबंधों की जब भी बात होती है तो पश्चिम के विश्लेषक भारत की एकमात्र ज़रूरत बताते हैं कि चीन से काउंटर के लिए ज़रूरी है. क्या भारत पश्चिम के लिए यही अहमियत रखता है?
भारत के पूर्व डिप्लोमैट राजीव डोगरा कहते हैं, ''पश्चिम और ख़ासकर अमेरिका भारत को चीन के ख़िलाफ़ टूल बनाना चाहते हैं. क्या भारत इनकी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए है या अपने हितों को देखेगा? ट्रंप तो भारत को बिल्कुल ही नहीं समझते हैं और पश्चिम भी भारत को अपने हिसाब से हाँकने के नज़रिए से देखता है.''
क्या अमेरिका और भारत का संबंध राष्ट्रपति ट्रंप और पीएम मोदी के 'पर्सनल ईगो' का सवाल बन गया है?
राजीव डोगरा कहते हैं, ''ट्रंप ने तो ईगो का सवाल बना लिया है. लेकिन पीएम मोदी ने ट्रंप को बस भारत का रुख़ बताया है. भारत किसी के मातहत काम नहीं करता है. भारत किसी के कहने पर न लड़ाई लड़ता है और न लड़ाई बंद करता है.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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