बिहार के मशहूर आंचलिक कथाकार फणीश्वनाथ रेणु का छठे दशक का चर्चित लघु उपन्यास है-‘पलटू बाबू रोड’। इस उपन्यास का मुख्य पात्र पलटू बाबू है। इसमें रेणु तत्कालीन समाज की गिरावट को मौकापरस्त पलटू बाबू के जरिए रेखांकित करते हैं जो नेता, ठेकेदार, वकील से गठजोड़ बनाकर अपना उल्लू सीधा करता है।
लेकिन तब के मूल्यों-मानकों के करघे पर बुनी गई छठे दशक की यह कहानी छह दशक बाद के बदले बिहार के पलटू बाबू की उतरन साबित होती है। बिहार के दीर्घकालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करिश्माई कद के आगे विपक्ष का यह ताना ताब नहीं दिखा पाता। बिहार की आज की रंग बदलती राजनीति में जिनको पलटू बाबू कहकर परिहास किया जाता है, जनता उसे उनकी एक अदा भर मानती है।
नीतीश की पार्टी जद-यू के एक नेता उनकी सफाई में कहते भी हैं कि नीतीश थोड़े न पलटते हैं, उनके साथवाला पार्टी पलटता है, नीतीश तो वहीं हैं। रेणु के ही एक अन्य उपन्यास ‘मारे गए गुलफाम’ के मुख्य पात्र हीरामन की तरह नीतीश बाबू ने भी कसम खा ली है कि अब आगे वे पलटी नहीं मारेंगे, लेकिन जितने मुंह उतनी बातें। कहते हैं, कसम तोड़कर पलटी मार जाएं तो ताज्जुब नहीं।
10वीं बार सीएम के दावेदार
जनता पार्टी, जनता दल, समता पार्टी से होते हुए जनता दल यूनाइटेड बनाने वाले 20 साल में 10वीं बार मुख्यमंत्री बनने के दावेदार हैं। नीतीश ने 2020 में भाजपा के साथ विधानसभा चुनाव लड़ा।
- अगस्त 22 में भाजपा को गच्चा देकर राजद के साथ आ गए। बमुश्किल डेढ़ साल बीते कि फिर भाजपा की गलबहियां हो गए। अब आगे क्या…वे जाने या ऊपरवाला।ऊपरवाला।
बिरादरी का वोट सिर्फ 3%…फिर भी 20 साल से राज
राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, इसे किसी ने मिसाल बनाया है तो वो हैं नीतीश कुमार। तीसरे नंबर की पार्टी और मात्र तीन फीसदी अपनी कुर्मी बिरादरी (सहयोगी कुइरी जाति जोड़ दें तो पांच फीसदी) के नेता होने के बावजूद नीतीश अगर 20 साल से निष्कंटक राज कर रहे हैं तो इसकी एक बड़ी वजह उनका इधर-उधर होने की रणनीति मानी जाती है। वक्त वक्त पलटूराम बनना उनकी मजबूरी या दूरदृष्टि, यह प्रश्न अभी निरुत्तर है। बड़ी बात यह भी है कि बीजेपी जैसी बड़ी और सयानी पार्टी को अपने पीछे खड़ा रखना।
लोग बोले-नीतीश दवा हैं, कड़वी हो या मीठी
नीतीश की विपक्ष भले पलटूराम कहकर खिल्ली उड़ाए लेकिन उनके वोटर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गोपालगंज से मुजफ्फरपुर जाते वक्त मोतीपुर अनुमंडल (तहसील) के हाईवे के गांव पाड़ापुर में खेत में काम कर रहे कुछ लोग बातचीत में जो दर्शन पेश करते हैं वो यह है कि नीतीश कुमार एक दवा हैं, कड़वी हो या मीठी, यहां के लोग उसी के आसरे हैं। पिछले दिनों कुछ वीडियो के बहाने नीतीश के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर चुहलबाजी का जिक्र होता है तो एक बुजुर्ग बोल पड़ते हैं.. सड़क में तो गड्ढा नहीं है ना जी, कहीं भी हो। जिनका दिमाग बहुत चलता था, तनी उनका काम देख लीजिए। 74 साल के नीतीश से लोगों की सहानुभित है, हमदर्दी है, कोफ्त या शिकायत नहीं। विपक्ष आरोप लगाता है कि उनकी पार्टी उन्हें तय स्क्रिप्ट देती है ताकि ऐसे संवेदनशील समय में वे कुछ ऐसा-वैसा न बोल दें।
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