नई दिल्ली, 25 अप्रैल . तकनीक का विकास जिस तेजी से हो रहा है, उतनी तेजी से मानव के दिमाग का विकास भी हो यह संभव नहीं है. दिमाग के विकास की एक सतत प्रक्रिया है. लेकिन, आज के जमाने में तकनीकी विकास की अंधी दौड़ में शिशु कितनी तेजी से अपनी उम्र से ज्यादा मैच्योर हो जा रहे हैं. यह समझते-समझते देर हो चुकी होती है.
दरअसल, हम जिस कालखंड में जी रहे हैं, यहां जितनी तेजी से तकनीक बदल रही है. उससे ज्यादा तेजी से उसे स्वीकार करने वालों की संख्या बढ़ रही है, जिसमें ज्यादातर शिशु हैं या फिर युवा. लेकिन, उनको पता ही नहीं होता कि कब यही तकनीकी विकास उनके लिए अभिशाप बन जाता है.
मानसिक स्वास्थ्य पर इन शॉर्ट-फॉर्म वीडियो (जिसको रील कहते हैं) के प्रभाव के बारे में चिंताओं के बाद, डॉक्टर अब एक नए बढ़ते संकट से होने वाली ‘आंखों की क्षति’ को लेकर चिंतित हैं.
आपके और आपके बच्चों के द्वारा बिताया गया अत्यधिक स्क्रीन टाइम, विशेष रूप से इंस्टाग्राम, टिकटॉक, फेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रील देखने से नेत्र विकारों में वृद्धि हो रही है.
इसके बारे में कई नेत्र रोग विशेषज्ञों ने समय-समय पर अपनी राय दी है. इससे पहले चिकित्सक एक-दो मिनट की रील (वीडियो) देखने की लत से दिमाग पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को लेकर चिंता जता चुके हैं. वह पहले ही कह चुके हैं कि यह आपकी मेमोरी को खत्म कर रहा है. इसका दुष्प्रभाव आपकी याददाश्त पर साफ नजर आ रहा है.
नेत्र चिकित्सक तो इसे ‘साइलेंट एपिडेमिक ऑफ डिजिटल आई स्ट्रेन’ (डिजिटल उपकरणों के इस्तेमाल से बढ़ती आंखों की बीमारी की महामारी) तक बता रहे हैं. नेत्र चिकित्सकों ने तो यहां तक स्पष्ट कर दिया है कि इसकी वजह से आंखों में खुश्की, निकट दृष्टि दोष, आंखों में दबाव और भेंगापन जैसे मामलों में तेजी से वृद्धि हो रही है. इसकी सबसे बड़ी वजह चिकित्सकों के अनुसार रील देखने की वजह से पलकें झपकने की दर में 50 प्रतिशत की कमी को माना गया है. वयस्कों में तो यह नीली रोशनी के कारण अक्सर सिरदर्द, माइग्रेन और नींद संबंधी विकार उत्पन्न कर रहा है.
चिकित्सकों का मानना तो यहां तक है कि 2050 तक विश्व की 50 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निकट दृष्टिदोष से ग्रस्त होगी.
इसके साथ ही मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि यह रील देखने की लत सामाजिक अलगाव, मानसिक थकान और ‘संज्ञानात्मक अधिभार’ यानी जरूरत से अधिक सूचना का संग्रह जैसी चिंताजनक प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है. लोगों का संबंध भी वास्तविक दुनिया से कटता जा रहा है और वे आभासी दुनिया के गुलाम बनते जा रहे हैं. जिसके परिणामस्वरूप पारिवारिक रिश्ते खराब हो रहे हैं. साथ ही बच्चों का ध्यान शिक्षा के प्रति कम होता जा रहा है.
वहीं, स्वास्थ्य विशेषज्ञ तो यहां तक कह रहे हैं कि शॉर्ट वीडियो देखने की यह लत आपकी बॉडी क्लॉक को बिगाड़ रही है.
इसका परिणाम यह हो रहा है कि रील के जरिए फील लेने की कोशिश में अत्यधिक डिजिटल उपभोग अक्सर खालीपन की भावना की ओर ले जाता है. इसके बाद भी हम संतुष्ट महसूस करने के बजाय, अक्सर खुद को और अपने आसपास की दुनिया से अधिक अलग पाते हैं. यह मानसिक प्रदूषण का प्रकार है, जो स्पष्ट रूप से सोचने और इरादे से जीने की क्षमता को धुंधला करता है. इसकी वजह से हो यह रहा है कि कोई भी जीवन के साथ सक्रिय रूप से जुड़ने के बजाय, सूचना का निष्क्रिय प्राप्तकर्ता बन जाता है और अपने स्वयं के विचारों और भावनाओं से संपर्क खो देता है.
चीन के तियानजिन नॉर्मल यूनिवर्सिटी और अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स के वैज्ञानिकों की मानें तो रील एडिक्शन वाले लोग न सिर्फ दूसरों की तुलना में एक अलग ब्रेन मॉर्फोलॉजी या स्ट्रक्चर डेवलप करते हुए दिखाई देते हैं. बल्कि इस लत वाले लोग “पर्सनलाइज्ड कंटेंट को हद से ज्यादा कंज्यूम करते हैं, यह इस हद तक होता है कि ये इनकी दूसरी एक्टिविटीज में निगेटिव तरीके से दखल देने लगता है.
साइंस जर्नल न्यूरो इमेज में छपे एक रिसर्च पेपर के अनुसार, ”शॉर्ट-वीडियो एडिक्शन एक बढ़ती हुई व्यवहारिक और सामाजिक समस्या के रूप में उभरा है. यह अब समाज में एक महामारी का रूप ले चुका है. इस मानसिक स्थिति के लिए ‘ब्रेन रॉट’ शब्द का प्रयोग किया जाता है. यह शब्द वर्चुअल लाइफ के खतरों को जाहिर करता है, जिसके बारे में ऑक्सफोर्ड लैंग्वेजेस के अध्यक्ष कैस्पर ग्राथवोहल ने बताया था.”
जेन जी (1997-2012 में जन्मे) और जेन अल्फा (2013 के बाद जन्मे) के लिए तो रील से फील अब खतरे की घंटी ही बनती जा रही है. वह उनके मानसिक विकास को बाधित कर रहा है. उनके दिमाग में सूचनाओं का ऐसा कबाड़ भर गया है, जिसे बाहर निकाल पाना असंभव सा लग रहा है. यह पारिवारिक, सामाजिक संरचना को इसी वजह से खराब कर रहा है.
सेहत के लिहाज से इन आदतों की हमारी सोसायटी में एक सुनामी सी आ चुकी है. अब हमें इससे लड़ना है. रील से फील पाने के चक्कर में युवा इंसोम्निया, स्लीप डिसऑर्डर, एंग्जाइटी और स्ट्रेस से पीड़ित होते जा रहे हैं. रील्स का अत्यधिक प्रयोग दिमाग के फोकस पर भी बुरा असर डाल रहा है. सोशलाइजेशन वाली स्किल तो इस वजह से इनकी मरती जा रही है, जिसकी वजह से लोग परिवार और दूसरे लोगों से बातचीत करना पसंद नहीं कर रहे हैं.
इस वजह से एंग्जाइटी और आइसोलेशन की समस्या खड़ी हो रही है. रील्स की वजह से बच्चे का ब्रेन सोने और जागने के टाइम में फर्क नहीं कर पा रहा. लोग रील्स की वजह से टाइम मैनेजमेंट नहीं कर पा रहे हैं, यह उनके दूसरे कामों पर भी नकारात्मक असर डाल रहा है.
एक ही पोजिशन में कई घंटे बैठे और लेटे हुए रील्स को देखते रहना यानी यह पॉश्चर से जुड़ी समस्याएं खड़ी कर रहा है. लोगों की गर्दनें टेढ़ी हो रही हैं. उनके अंगूठे में टेढ़ापन, दर्द, जॉइंट ब्रेक जैसी समस्याएं भी आम हो रही हैं.
अब इसका एक और दुष्परिणाम देखिए, तकनीकी विकास के साथ मोबाइल फोन बेसिक से स्मार्ट हुए तो लोगों के हाथ में कैमरे आ गए. पहले जो कैमरे पर रील को इसलिए सहेज कर रखते थे कि कुछ खास मौकों पर फोटो क्लिक कर और फिर रील के भरने के बाद उसे डेवलप कराकर अपनी यादों को एलबम में संजोकर रख लेंगे अब उनके हाथ में फटाफट फोटो क्लिक करने का ऑप्शन आ गया.
अब एक ही पोज की अनगिनत तस्वीरें एक बार में खींच भी ली तो क्या नुकसान, बस फोन की मेमोरी ही तो भर रही है. लेकिन, आपने देखा होगा कि अब आपकी यादें मोबाइल में हीं कैद रह जा रही हैं. यह अब आपके एलबम तक पहुंच ही नहीं पा रही हैं.
आप तस्वीरों को डेवलप कराना भूल गए हैं, जिसका नतीजा है कि फोटो की फ्रेम आपकी घरों की दीवारों को सजाने के लिए नजर नहीं आ रही. उनकी जगह पोस्टर, प्लास्टिक के फूल आदि ने ले ली है. यानी आप अपनी तस्वीरों को यादों के लिए लेते तो हैं, लेकिन फोन बदलते ही कई बार ये तस्वीरें गायब हो जाती हैं. या फिर आपके फोन तक ही सीमित रह जाती हैं.
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जीकेटी/
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