हिमाचल प्रदेश वन विभाग ने शिमला के उपनगरीय इलाके कैथलीघाट-ढल्ली खंड पर 30 जून को बड़े पैमाने पर हुए भूस्खलन के लिए भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) को जिम्मेदार ठहराया है और इसके लिए 5 जुलाई 2025 को शिकायत भी दर्ज कराई है। यह संभवतः पहली बार होगा जब किसी राज्य के वन विभाग ने एनएचएआई को इस तरह ऐसे किसी मामले में सीधे घसीटा है।
वन विभाग और राजस्व अधिकारियों द्वारा मौके पर की गई जांच के बाद वन अधिकारी अजीत कुमार द्वारा कराई गई शिकायत में कहा गया है: 'इसमें संदेह नहीं है कि भूस्खलन की घटना के लिए एनएचएआई पूरी तरह से जिम्मेदार है। उसके द्वारा कटाई के काम में बरती गई लापरवाही और दोषपूर्ण निष्पादन के कारण आस-पास की वन भूमि को गंभीर नुकसान हुआ है, जो भूस्खलन का मुख्य कारण है। संस्था सतर्क रहती, फोर लेन के निर्माण में उचित सावधानियों के साथ बेहतर सुरक्षा उपाय अपनाए गए होते, तो यह सब टाला जा सकता था।'
वन विभाग ने शिमला के एक उपनगर में पांच मंजिला इमारत ढहने के लिए भी एनएचएआई को जिम्मेदार ठहराया और इसे सड़क निर्माण में अपनाई गई त्रुटियों के कारण हुए भूस्खलन का नतीजा बताया है। एनएचएआई के खिलाफ संरक्षित क्षेत्रों से संबंधित अपराधों के लिए भारतीय वन अधिनियम की धारा 32 और 33 तथा भारतीय न्याय संहिता की धारा 324 (5) के तहत मामला दर्ज किया गया है। एक सप्ताह के दौरान यह चौथा ऐसा मामला है। चार में से दो मामले व्यक्तिगत वादियों ने दायर कराए हैं।
संभवतः पहली बार है जब किसी सरकारी विभाग ने एनएचएआई के खिलाफ शिकायत कर कार्रवाई की मांग की है। 2023 में, शिमला नगर निगम के पूर्व महापौर टिकेंद्र पंवार ने एनएचएआई और जी.आर. इंफ्राप्रोजेक्ट्स के खिलाफ आपराधिक लापरवाही का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी। कालका-शिमला राजमार्ग के परवाणू-सोलन खंड के बीच ढलानों के बजाय खड़ी पहाड़ियों को काटने के कारण, ‘पत्थर और मलबा गिरने’ से चंडीगढ़-शिमला एक्सप्रेसवे पर वाहनों का भारी जाम लग गया था।
पंवार कहते हैं कि उनकी एफआईआर के बाद एनएचएआई ने परवाणू-सोलन खंड में पहाड़ों पर चट्टानें चढ़ाना शुरू कर दिया। हालांकि, राज्य के बाकी हिस्सों में उन्होंने वर्टिकल कटिंग (सीधी कटाई) जारी रखी। जो न्यूनतम होना चाहिए था, वह भी नहीं हुआ- यानी संबंधित अधिकारियों द्वारा सक्रिय और वैज्ञानिक रूप से ठोस निर्माण कार्य फिर भी नहीं कराया गया।
एनएचएआई की हजारों किलोमीटर लंबी सड़क परियोजनाओं में लगातार बरती जा रही लापरवाहियां पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गई हैं। पूरा हिमालयी क्षेत्र लगातार बढ़ती आपदाओं से जूझ रहा है, और हर आपदा पहले से भी ज्यादा भयावह साबित हो रही है। पंवार का मानना है कि हालात की भयावहता सामने लाने और एनएचएआई के खिलाफ एकजुट होकर कार्रवाई करने का दबाव बनाने के लिए सभी हिमालयी राज्यों की जनता को ही आगे आकर आवाज बुलंद करनी होगी। विनाश की भयावहता सामने लाने का यही एकमात्र प्रभावी तरीका है।
कांगड़ा में हिमधारा कलेक्टिव की पर्यावरणविद मानशी आशेर कहती हैं कि राज्य में भूस्खलन दुर्लभ थे। लेकिन पिछले 12 सालों में इनमें अप्रत्याशित तेजी आई है। एनएचएआई द्वारा 18,000 करोड़ रुपये की लागत से 197 किलोमीटर लंबे कीरतपुर-कुल्लू-मनाली राजमार्ग का निर्माण शुरू होने के बाद से तो भूस्खलन तेजी से बढ़ा है। कुल्लू कभी भी भूस्खलन की आशंकाओं वाला इलाका नहीं रहा, लेकिन नए राजमार्ग के कई हिस्से इसके उद्घाटन के कुछ ही दिनों में ढह गए।
अशर ने बताया कि मूल पठानकोट-मंडी राजमार्ग, पहाड़ के प्राकृतिक मोड़ों के अनुरूप एक सिंगल रोड थी, जबकि एनएचएआई द्वारा निर्माणाधीन नया राजमार्ग सीधा है, और इसी के कारण जुलाई 2025 में भयंकर बाढ़ आई। इससे मंडी और उसके आसपास हुई तबाही के आंकड़े बताते हैं कि इसमें 80 लोग मारे गए, 31 लापता हैं। 150 से ज्यादा घर और 106 पशुशालाएं नष्ट हो गईं, 14 पुल ढह गए और 31 वाहन बह गए।
हालांकि, वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि जल्दबाजी में किए गए अवैज्ञानिक सड़क निर्माण और नदियों में कचरा डालने से बाढ़ के हालात पैदा हुए हैं। वहीं, एनएचएआई के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि बाढ़ के कारण 500 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है। अशर तीखे शब्दों में कहती हैं कि एनएचएआई का ब्यास नदी के किनारे हाईवे बनाने का विचार महज “दिमागी फितूर” है। उन्हें अहसास ही नहीं रहा कि नदी रास्ता बदलती रहती है! नतीजतन, इस मानसून में सड़क का बड़ा हिस्सा बह गया। उन्हें शायद यह भी नहीं पता कि निर्माण स्थलों से नदियों में डाला गया मलबा उनका जलस्तर बढ़ाकर बाढ़ का कारण बनता है। वह कहती हैं कि यह चौंकाने वाली बात है कि कीरतपुर-मनाली सड़क का एक हिस्सा इसी मलबे के ढेर पर बना दिया गया।
उत्तराखंड में भी हालात उतने ही खराब हैं। राज्य आपदा एक्शन फोर्स के आंकड़े बताते हैं कि वहां पिछले 10 वर्षों में भूस्खलन से संबंधित 5,000 से ज्यादा मौतें हुई हैं। हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय में भूविज्ञानी और प्रोफेसर यशपाल सुंदरियाल सड़क चौड़ीकरण प्रक्रिया की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह सारा काम मजदूर और जेसीबी ऑपरेटर कर रहे हैं। वह बताते हैं, “मैंने कहीं नहीं देखा कि तकनीकी मार्गदर्शन के लिए कोई इंजीनियर या कोई अफसर मौके पर मौजूद हो। जहां भी ढलानों को तेजी से काटा जाता है, वे पांच साल बाद भी स्थिर नहीं हो पाते हैं।” उनके अनुसार, भविष्य में भूस्खलन के हालात न बनें, इसके लिए ‘आराम कोण’ के मूल सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए।
ऐसे में बड़ा सवाल है कि उत्तराखंड के लोगों ने हिमाचल वालों की तरह एनएचएआई के खिलाफ एफआईआर करने की जरूरत क्यों नहीं समझी, जबकि वे भी उनकी तरह ही प्रभावित थे? पर्यावरणविद रीना पॉल इसके पीछे सिर पर मंडराता ‘राष्ट्रीय सुरक्षा का खौफ’ बताती हैं। पॉल कहती हैं, “एनएचएआई ने चार धाम योजना को फोरलेन का बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी मिल जाए, इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ ली। इससे भी बुरा यह हुआ कि पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरणीय प्रभाव के लिए अनिवार्य आकलन की जरूरत को दरकिनार करने के लिए अपने ही नियमों को तोड़ता-मरोड़ता दिखाई दिया। नतीजे सामने हैं: प्रभाव का आकलन किए बिना आगे बढ़ेंगे, तो पर्यावरणीय आपदाएं आनी ही हैं।”
स्थानीय लोगों का मानना है कि जो हालात हैं, ऐसे में किसी भी शिकायत या एफआईआर को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की दीवार से टकराना पड़ता, जिसे झेलना आसान नहीं है। एनएचएआई अपने बचाव में क्या कहता है? केन्द्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने बड़ी सहजता से सारा दोष सिविल इंजीनियरों पर मढ़ दिया है। दिल्ली में दो दिवसीय ग्लोबल रोड इंफ्राटेक समिट एंड एक्सपो (जीआरआईएस) को संबोधित करते हुए गडकरी ने कहा: “सबसे बड़े दोषी सिविल इंजीनियर हैं। मैं हर किसी को दोष नहीं देता, लेकिन अपने दस साल के अनुभव के बाद, मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं। दोषी डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) बनाने वाले हैं। सिविल इंजीनियरिंग की छोटी-छोटी गलतियों के कारण सैकड़ों मौतें होती हैं।” उन्होंने आगे कहा कि कोई भी अपनी गलतियां सुधारने को तैयार नहीं दिखता।
ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है: हमारे नाजुक हिमालयी क्षेत्र को तबाह कर रही और जान-माल को भारी नुकसान पहुंचा रही राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजनाओं का प्रभारी मंत्री होने के नाते गडकरी और उनके द्वारा चुनी गई नौकरशाहों की टीम कार्यान्वयन से पहले डीपीआर की जांच क्यों नहीं कर पाई? नुकसान हो जाने के बाद इंजीनियरों को जिम्मेदार ठहराने का क्या मतलब है?
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