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हमने कितना छोटा कर लिया दोस्तों का कुनबा !

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ऐसा लगता है कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार की तमाम कोशिशें बेकार साबित हो रही हैं। इन प्रतिनिधिमंडलों के रवाना होने से पहले भारत के पक्ष को लेकर समर्थन की कमी (कृपया पढ़ें: ) अब भी बरकरार है और इसके लिए पिछले 11 सालों से भारत की विदेश नीति का दारोमदार संभाले लोगों की कूटनीतिक बुद्धिमत्ता पर सवाल तो उठता ही है।

कूटनीति तभी सफल होती है जब उसे व्यापक सराहना मिले लेकिन मौजूदा शासन के दौरान ऐसा नहीं हुआ। इस सरकार के प्रयासों का मतलब विशुद्ध रूप से ‘एक खास व्यक्ति’ को बढ़ावा देना है, जिसने अपने वैश्विक नजरिये (या इसकी कमी) की वजह से दुनिया में भारत को अलग-थलग कर दिया है।

जबकि विदेशी सरकारें निस्संदेह भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य टकराव को लेकर चिंतित थीं, उनके लोग और उनका मीडिया काफी हद तक यूक्रेन पर रूस के हमले और गाजा में इजरायल की ज्यादतियों में उलझा था। ध्यान नए पोप, नए व्यापार समझौतों, ब्रेक्सिट के बाद वस्तुओं, सेवाओं और लोगों की आवाजाही में तनाव को कम करने के लिए ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच रस्साकशी कम करने पर रहा। ऐसे हालात में मोदी-चालित भारतीय विदेश नीति धारा के उलट चल रही है।

अप्रैल 2024 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने प्रस्ताव पारित किया, जिसमें गाजा में युद्ध अपराधों और मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए इजरायल को जवाबदेह ठहराने और इजरायली सुरक्षा बल (आईडीएफ) को हथियारों की आपूर्ति बंद करने की अपील की गई। भारत ने मतदान में भाग नहीं लिया। वास्तव में, गाजा में दागे गए कुछ इजरायली रॉकेटों पर ‘मेड इन इंडिया’ चिह्न दिखाई दिए। पिछले सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इजरायल के फिलिस्तीनी क्षेत्र पर अवैध कब्जे के खिलाफ भारी मतदान किया। एक बार फिर, भारत तटस्थ रहा। भारत विकासशील दुनिया में भी अपने को अलग-थलग पाता है, जहां कभी उसने वैश्विक दक्षिण का नेतृत्व किया था। वैसे, बांडुंग सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू की उल्लेखनीय भूमिका की यह 70वीं वर्षगांठ है।

हाल ही में गाजा पर लगातार बमबारी के बाद, जिसमें हमेशा की तरह बड़ी संख्या में आम लोग हताहत हुए, फ्रांस और ब्रिटेन- जो परंपरागत रूप से इजरायल के प्रबल समर्थक हैं- ने पहली बार खुद को तेल अवीव से दूर कर लिया। वे जल्द ही जी-7 देशों में से फिलिस्तीनी प्राधिकरण को राजनयिक मान्यता देने वाले पहले देश बन सकते हैं। यहां तक कि डॉनल्ड ट्रंप का धैर्य भी चुक रहा है।

पहलगाम में पर्यटकों की निर्मम हत्या के बाद जब भारत पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की तैयारी कर रहा था तो रूस ने ऑपरेशन सिंदूर का समर्थन नहीं किया और न ही उसने पाकिस्तान पर उंगली उठाई: उसने भारत से संयम बरतने को कहा। ब्रिटेन ने भारत से नरम रुख अपनाने को कहा।

फिर भी, साउथ ब्लॉक क्रेमलिन के साथ अपने रिश्ते को कम नहीं कर सकता। पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच भारत रूसी हथियारों और तेल लगातार खरीदता रहा और इस तरह उसने रूसी अर्थव्यवस्था को बचाए रखने में प्रमुख भूमिका निभाई। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की मोदी-निर्मित कमजोरी, जैसा कि हाल ही में पाकिस्तान के साथ हुए विवाद के दौरान उजागर हुआ, ने रूस को सतर्क कर दिया है।

सत्ता में आते ही मोदी का अमेरिका की गोद में बैठ जाना रूस को परेशान कर गया। लिहाजा, भारत के प्रति उसका रवैया व्यापार-आधारित हो गया। चीन, जो बेशक कभी दोस्त नहीं रहा, दुश्मन बन गया। फ्रांस के साथ संबंध बेशक गहरे हुए; लेकिन चीन की महत्वाकांक्षाओं का विकल्प नहीं बन पाए।

यूक्रेन में रूस की आक्रामकता के बाद जब अमेरिका ने रूस के साथ भारत के व्यापक हो रहे आर्थिक रिश्तों पर सवाल उठाया, तो विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर ने कथित तौर पर वाशिंगटन को भरोसा दिलाया कि ऐसा इसलिए है कि मास्को को बीजिंग के बहुत करीब जाने से रोका जाए। जबकि तथ्य यह है कि रूस और चीन कभी इतने घनिष्ठ नहीं रहे। जयशंकर की चतुराईपूर्ण बातें भारत के चाटुकार मीडिया को प्रभावित कर सकती हैं; लेकिन खरगोश के साथ भागना और शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करना अंततः हारने वाला ही होता है।

भारत की ओर से सात प्रतिनिधिमंडल दुनिया भर में भेजे गए हैं ताकि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर अपना आक्रोश जताते हुए ऑपरेशन सिंदूर को उचित ठहराया जा सके। लेकिन इन दलों में ज्यादातर वर्तमान सांसद हैं जिन्हें विदेशी मामलों की कोई जानकारी नहीं। ये दल किसी सरकार के मुखिया तो दूर, अब तक किसी कैबिनेट मंत्री से भी नहीं मिल सके हैं। खैर, यह समय छुट्टियां मनाने के लिए साल के सबसे अच्छे समय में से एक है!

यह करदाताओं के पैसे की बरबादी है। इसका कोई असर नहीं होगा। यह कहने में नया क्या है कि ‘भारत आतंकवाद का मुकाबला करने के अपने प्रयासों में दृढ़ है’ और ‘इस महत्वपूर्ण वैश्विक चुनौती के मामले में और अंतरराष्ट्रीय एकजुटता जरूरी है’? मोदी और जयशंकर ने भारतीय विदेश नीति को उलझन में डाल दिया है। एक भी देश ने पाकिस्तान को आतंकवाद का प्रायोजक नहीं बताया।

2008 में मुंबई आतंकवादी हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने न केवल भारत का साथ दिया था बल्कि पाकिस्तान को फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की निगरानी सूची में डालने में मदद की। साफ है, सैन्य ताकत दिखाने की तुलना में पैनी कूटनीति ज्यादा प्रभावशाली है। किसी भी पी-5 देश ने ऑपरेशन सिंदूर का समर्थन नहीं किया, जबकि चीन ने पाकिस्तान के साथ घोषित रूप से मजबूत रिश्ते रखे। नाटो के सदस्य तुर्की ने भी ऐसा ही किया। दोनों ने लड़ाकू विमानों, ड्रोन और मिसाइलों से पाकिस्तानी सेना को मजबूत किया।

भारत के सबसे करीबी सहयोगी भूटान ने पहलगाम की घटना की निंदा की और भारत के साथ सहानुभूति जताई। नेपाल ने भी यही किया जिसका एक नागरिक  पहलगाम हमले में मारा गया था। काठमांडू में प्रदर्शनकारियों ने पाकिस्तानी दूतावास को एक विरोध पत्र सौंपा। लेकिन किसी ने भी पाकिस्तान सरकार को दोषी नहीं ठहराया। बांग्लादेश ने समर्थन नहीं किया और श्रीलंका भी अलग ही रहा।

आतंकवाद ऐसा अभिशाप है, जिसे बहुत कम देश मानते हैं। हैरानी नहीं कि इतने सारे देशों ने निहत्थे पर्यटकों की क्रूर हत्या की निंदा की और कि भारत के साथ सहानुभूति भी जताई, लेकिन किसी ने भी पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई में भारत का समर्थन नहीं किया। सब जानता चाहते हैं: पहलगाम हमले को अंजाम देने वालों के बारे में खुफिया जानकारी क्या है? क्या इसके जवाब में ऑपरेशन सिंदूर सही था? क्या 6-7 मई कार्रवाई में पहलगाम हमले का कोई दोषी मारा गया?

अच्छी विदेश नीति रक्षा और आंतरिक सुरक्षा पर खर्च कम करती है। 2014 के बाद से दोनों की लागत में तेजी से वृद्धि मोदी और जयशंकर की कमियों का सबूत है। उनके होते पाकिस्तान के साथ दो सैन्य टकराव हो चुके हैं। 2020 में चीन ने लद्दाख के उस इलाके पर कब्जा कर लिया जिसे 1993 की भारत-चीन संधि के बाद से ही भारतीय क्षेत्र माना जाता था। इससे पहले 2017 में चीन ने सिक्किम के पास डोकलाम में इसी तरह की घुसपैठ का प्रयास किया था।

जबकि डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते एक दशक तक चीन या पाकिस्तान के साथ कोई सशस्त्र संघर्ष नहीं हुआ। ऐसा नहीं है कि उन्होंने भारत की रक्षा तैयारियों से समझौता किया। विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य को नौसेना में शामिल किया गया। निगरानी उपकरण और लड़ाकू ड्रोन इजरायल से आए। विमान, हेलीकॉप्टर और एंटी-शिप मिसाइलें पहली बार अमेरिका से आईं। भारतीय वायु सेना के नए लड़ाकू विमानों के रूप में फ्रांसीसी राफेल का चयन भी सिंह के कार्यकाल में ही हुआ।

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