देश के ज्यादातर हिंदी भाषी राज्यों में बीजेपी की पताका फहरा रही है। इनमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा जैसे राज्य शामिल हैं, जहां पार्टी ने संगठन, नेतृत्व और ब्रांड वैल्यू के दम पर सत्ता हासिल की। लेकिन इसी हिंदी हार्टलैंड का एक राज्य है-बिहार, जो अब तक बीजेपी के लिए अधूरा सपना रहा है। चुनावी नतीजों के विश्लेषण से साफ है कि बीजेपी जहां अन्य राज्यों में सामाजिक रूप से व्यापक और नेतृत्व के स्तर पर स्थायी मॉडल बना चुकी है, वहीं बिहार में वह अब भी गठबंधन के जरिए ही सत्ता में पहुंच पाई है।
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि बीजेपी की बिहार यात्रा की शुरुआत 1950 के दशक में जनसंघ से हुई। लेकिन कांग्रेस का गढ़ तोड़ना उसके लिए असंभव साबित हुआ। 1977 के जयप्रकाश नारायण आंदोलन ने पहली बार बीजेपी (तब जनसंघ) को जनता के बीच पहुंचाया, पर वह सफलता व्यक्तिगत करिश्मे और एंटी-कांग्रेस लहर पर आधारित थी। 1962 में मात्र 3 सीटों से शुरुआत करने वाली पार्टी ने 1977 में जनता पार्टी गठबंधन के तहत 214 सीटों तक की ऐतिहासिक छलांग लगाई, जो जेपी आंदोलन की लहर का नतीजा थी। लेकिन उसके बाद पार्टी का ग्राफ अस्थिर रहा। 1980 के दशक में वह 20-25 सीटों के दायरे में सीमित रही और वोट शेयर भी 8 प्रतिशत के आसपास झूलता रहा। 1990 के बाद बीजेपी ने धीरे-धीरे स्थिरता हासिल की। 2000 में उसने 67 सीटें और लगभग 15% वोट शेयर हासिल किया।
नीतीश ने दिलाया सत्ता का सुख लेकिन पहचान धूमिल हुई
जानकार बताते हैं कि 1980 के बाद पार्टी ने धीरे-धीरे अपना आधार सवर्ण और शहरी वर्गों में मजबूत किया लेकिन ग्रामीण, पिछड़े और दलित समुदायों में वह कभी गहरी पैठ नहीं बना सकी। यही उसकी सबसे बड़ी रणनीतिक सीमा रही। नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता में तो पहुंचाया, लेकिन इसने पार्टी की अलग पहचान को कमजोर किया। जेडीयू सामाजिक न्याय और विकास के बीच संतुलन साधने में सक्षम था, जबकि बीजेपी मुख्य रूप से वैचारिक और शहरी मतदाता समूहों पर टिकी रही।
बीजेपी का लोकल लेवल पर नेतृत्व संकट
बिहार में बीजेपी का दूसरा बड़ा संकट स्थानीय स्तर पर किसी बड़े चेहरे की कमी है। राजनीतिक तौर पर पार्टी के पास अब न तो कोई मुख्यमंत्री योग्य चेहरा है न ही कोई करिश्माई नेता, जो नीतीश कुमार या तेजस्वी यादव के स्तर की पकड़ जनता पर रखता हो। सुशील कुमार मोदी के निधन के बाद बीजेपी के आला नेता तो सक्रिय हैं लेकिन उनकी जनता के बीच राजनीतिक पकड़ कमजोर है। यही कारण है कि बीजेपी सत्ता में रहते हुए भी जनता के बीच अपनी अलग छवि नहीं बना पाई है।
जातीय समीकरण में असंतुलन
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा हावी रहा है। मुस्लिम-यादव गठजोड़ आरजेडी तो कुर्मी-कायस्थ-ओबीसी समीकरण जेडीयू के साथ चलने के चलते बीजेपी सवर्ण आधार तक सीमित रह गई है। पार्टी ने पासवान और कुशवाहा समाज में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन वह उसे स्थायी वोट बैंक में नहीं बदल सकी। इसका नतीजा यह हुआ कि बीजेपी के वोट शेयर में स्थिरता तो रही (2020 में 19.46%) पर सीटें ज्यादा नहीं बढ़ीं। सरकार बनाने के लिए वह अब भी सत्ता में पार्टनर पर निर्भर है।
बिहार में बीजेपी का चुनावी ग्राफ
बीजेपी को नीतीश कुमार की जदयू के साथ गठबंधन से नया अवतार मिला। 2005 और 2010 के चुनावों में बीजेपी ने गठबंधन के सहारे 55 और 91 सीटें जीतीं और वोट शेयर बढ़ गया। हालांकि 2015 में गठबंधन टूटने से पार्टी को झटका लगा, लेकिन 2020 में जदयू के साथ दोबारा मिलकर बीजेपी ने 74 सीटें और 19.46 फीसदी वोट शेयर हासिल किया। यह बताता है कि बिहार में बीजेपी बिना गठबंधन सत्ता तक नहीं पहुंच सकी। जानकार कहते हैं कि बिहार में बीजेपी का असली संघर्ष चुनावी नहीं, बल्कि पहचान का है। 2020 में 74 सीटें जीतने के बावजूद बीजेपी को सत्ता की चाभी जेडीयू के हाथ में देनी पड़ी था। यानी बीजेपी बिहार में एक रूलिंग पार्टी नहीं, बल्कि रूलिंग पार्टनर भर रही है।
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि बीजेपी की बिहार यात्रा की शुरुआत 1950 के दशक में जनसंघ से हुई। लेकिन कांग्रेस का गढ़ तोड़ना उसके लिए असंभव साबित हुआ। 1977 के जयप्रकाश नारायण आंदोलन ने पहली बार बीजेपी (तब जनसंघ) को जनता के बीच पहुंचाया, पर वह सफलता व्यक्तिगत करिश्मे और एंटी-कांग्रेस लहर पर आधारित थी। 1962 में मात्र 3 सीटों से शुरुआत करने वाली पार्टी ने 1977 में जनता पार्टी गठबंधन के तहत 214 सीटों तक की ऐतिहासिक छलांग लगाई, जो जेपी आंदोलन की लहर का नतीजा थी। लेकिन उसके बाद पार्टी का ग्राफ अस्थिर रहा। 1980 के दशक में वह 20-25 सीटों के दायरे में सीमित रही और वोट शेयर भी 8 प्रतिशत के आसपास झूलता रहा। 1990 के बाद बीजेपी ने धीरे-धीरे स्थिरता हासिल की। 2000 में उसने 67 सीटें और लगभग 15% वोट शेयर हासिल किया।
नीतीश ने दिलाया सत्ता का सुख लेकिन पहचान धूमिल हुई
जानकार बताते हैं कि 1980 के बाद पार्टी ने धीरे-धीरे अपना आधार सवर्ण और शहरी वर्गों में मजबूत किया लेकिन ग्रामीण, पिछड़े और दलित समुदायों में वह कभी गहरी पैठ नहीं बना सकी। यही उसकी सबसे बड़ी रणनीतिक सीमा रही। नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता में तो पहुंचाया, लेकिन इसने पार्टी की अलग पहचान को कमजोर किया। जेडीयू सामाजिक न्याय और विकास के बीच संतुलन साधने में सक्षम था, जबकि बीजेपी मुख्य रूप से वैचारिक और शहरी मतदाता समूहों पर टिकी रही।
बीजेपी का लोकल लेवल पर नेतृत्व संकट
बिहार में बीजेपी का दूसरा बड़ा संकट स्थानीय स्तर पर किसी बड़े चेहरे की कमी है। राजनीतिक तौर पर पार्टी के पास अब न तो कोई मुख्यमंत्री योग्य चेहरा है न ही कोई करिश्माई नेता, जो नीतीश कुमार या तेजस्वी यादव के स्तर की पकड़ जनता पर रखता हो। सुशील कुमार मोदी के निधन के बाद बीजेपी के आला नेता तो सक्रिय हैं लेकिन उनकी जनता के बीच राजनीतिक पकड़ कमजोर है। यही कारण है कि बीजेपी सत्ता में रहते हुए भी जनता के बीच अपनी अलग छवि नहीं बना पाई है।
जातीय समीकरण में असंतुलन
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा हावी रहा है। मुस्लिम-यादव गठजोड़ आरजेडी तो कुर्मी-कायस्थ-ओबीसी समीकरण जेडीयू के साथ चलने के चलते बीजेपी सवर्ण आधार तक सीमित रह गई है। पार्टी ने पासवान और कुशवाहा समाज में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन वह उसे स्थायी वोट बैंक में नहीं बदल सकी। इसका नतीजा यह हुआ कि बीजेपी के वोट शेयर में स्थिरता तो रही (2020 में 19.46%) पर सीटें ज्यादा नहीं बढ़ीं। सरकार बनाने के लिए वह अब भी सत्ता में पार्टनर पर निर्भर है।
बिहार में बीजेपी का चुनावी ग्राफ
बीजेपी को नीतीश कुमार की जदयू के साथ गठबंधन से नया अवतार मिला। 2005 और 2010 के चुनावों में बीजेपी ने गठबंधन के सहारे 55 और 91 सीटें जीतीं और वोट शेयर बढ़ गया। हालांकि 2015 में गठबंधन टूटने से पार्टी को झटका लगा, लेकिन 2020 में जदयू के साथ दोबारा मिलकर बीजेपी ने 74 सीटें और 19.46 फीसदी वोट शेयर हासिल किया। यह बताता है कि बिहार में बीजेपी बिना गठबंधन सत्ता तक नहीं पहुंच सकी। जानकार कहते हैं कि बिहार में बीजेपी का असली संघर्ष चुनावी नहीं, बल्कि पहचान का है। 2020 में 74 सीटें जीतने के बावजूद बीजेपी को सत्ता की चाभी जेडीयू के हाथ में देनी पड़ी था। यानी बीजेपी बिहार में एक रूलिंग पार्टी नहीं, बल्कि रूलिंग पार्टनर भर रही है।
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