नई दिल्ली: उत्तराखंड के उत्तरकाशी में आई आपदा प्रकृति की एक और गंभीर चेतावनी है। यह बताती है कि पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन साधने की कितनी जरूरत है। देश के पहाड़ी राज्यों, खासकर उत्तराखंड को लेकर ऐसी नीति चाहिए, जिससे पहाड़ और इंसानों के बीच संतुलन बना रहे।
बड़ी हानि: उत्तरकाशी के धराली गांव में खीरगंगा नदी के ऊपरी क्षेत्र में बादल फटा और फ्लैश फ्लड ने रास्ते में आने वाली हर चीज को अपनी चपेट में ले लिया। प्रभावित इलाके से आ रहे विडियो दिल दहलाने वाले हैं। अभी चारधाम यात्रा सीजन चल रहा है और यह गांव गंगोत्री वाले रास्ते पर पड़ता है। श्रद्धालुओं के रुकने का यह एक अहम पड़ाव है। ऐसे में जानमाल की बड़े पैमाने पर हानि की आशंका है।
लगातार आफत: हाल के बरसों में उत्तराखंड इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं के केंद्र में रहा है। 2021 में चमोली जनपद में, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के पास एक ग्लेशियर टूटकर गिर गया था। इसकी वजह से धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आ गई और तपोवन विष्णुगाड पनबिजली परियोजना में काम करने वाले कई श्रमिकों को जान गंवानी पड़ी। इसी तरह, 2023 की शुरुआत में एक और धार्मिक पर्यटन स्थल जोशीमठ में भूस्खलन ने एक बड़ी आबादी को विस्थापित कर दिया।
खतरनाक स्थिति: साल 2013 में केदार घाटी में मची भयानक तबाही से लेकर अभी तक, छोटी-बड़ी ऐसी कई प्राकृतिक आपदाएं आ चुकी हैं। सवाल यहां आकर रुकती है कि पहाड़ से छेड़छाड़ कब रुकेगी? आरोप है कि उत्तराखंड में चल रहे बेशुमार पावर प्रॉजेक्ट्स ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है। इसमें बढ़ती आबादी, लाखों पर्यटकों के बोझ, अनियंत्रित निर्माण और घटती हरियाली को मिला दीजिए तो स्थिति विस्फोटक बन जाती है।
अनियंत्रित निर्माण: बादल फटना प्राकृतिक घटना है, जिस पर इंसानों का जोर नहीं। लेकिन, यह भी तथ्य है कि पानी निकलने के रास्तों, नालों-गदेरों के मुहानों पर कंक्रीट के बड़े-बड़े स्ट्रक्चर खड़े हो चुके हैं। तमाम जगहों पर, जिन रास्तों से पानी को बहना था, वहां इंसान बस चुका है। यह जानबूझकर आफत बुलाने जैसा है।
संभलने की जरूरत: उत्तराखंड को लेकर यह बहस करीब 5 दशक पुरानी है कि विकास किस कीमत पर होना चाहिए। साल 1976 में, गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में गठित कमिटी ने जोशीमठ को बचाने के लिए फौरन कुछ कदम उठाने की सिफारिश की थी- इनमें संवेदनशील जोन में नए निर्माण पर रोक और हरियाली बढ़ाना प्रमुख था। 49 साल बाद आज वह रिपोर्ट पूरे पहाड़ के लिए प्रासंगिक हो चुकी है।
बड़ी हानि: उत्तरकाशी के धराली गांव में खीरगंगा नदी के ऊपरी क्षेत्र में बादल फटा और फ्लैश फ्लड ने रास्ते में आने वाली हर चीज को अपनी चपेट में ले लिया। प्रभावित इलाके से आ रहे विडियो दिल दहलाने वाले हैं। अभी चारधाम यात्रा सीजन चल रहा है और यह गांव गंगोत्री वाले रास्ते पर पड़ता है। श्रद्धालुओं के रुकने का यह एक अहम पड़ाव है। ऐसे में जानमाल की बड़े पैमाने पर हानि की आशंका है।
लगातार आफत: हाल के बरसों में उत्तराखंड इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं के केंद्र में रहा है। 2021 में चमोली जनपद में, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के पास एक ग्लेशियर टूटकर गिर गया था। इसकी वजह से धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आ गई और तपोवन विष्णुगाड पनबिजली परियोजना में काम करने वाले कई श्रमिकों को जान गंवानी पड़ी। इसी तरह, 2023 की शुरुआत में एक और धार्मिक पर्यटन स्थल जोशीमठ में भूस्खलन ने एक बड़ी आबादी को विस्थापित कर दिया।
खतरनाक स्थिति: साल 2013 में केदार घाटी में मची भयानक तबाही से लेकर अभी तक, छोटी-बड़ी ऐसी कई प्राकृतिक आपदाएं आ चुकी हैं। सवाल यहां आकर रुकती है कि पहाड़ से छेड़छाड़ कब रुकेगी? आरोप है कि उत्तराखंड में चल रहे बेशुमार पावर प्रॉजेक्ट्स ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है। इसमें बढ़ती आबादी, लाखों पर्यटकों के बोझ, अनियंत्रित निर्माण और घटती हरियाली को मिला दीजिए तो स्थिति विस्फोटक बन जाती है।
अनियंत्रित निर्माण: बादल फटना प्राकृतिक घटना है, जिस पर इंसानों का जोर नहीं। लेकिन, यह भी तथ्य है कि पानी निकलने के रास्तों, नालों-गदेरों के मुहानों पर कंक्रीट के बड़े-बड़े स्ट्रक्चर खड़े हो चुके हैं। तमाम जगहों पर, जिन रास्तों से पानी को बहना था, वहां इंसान बस चुका है। यह जानबूझकर आफत बुलाने जैसा है।
संभलने की जरूरत: उत्तराखंड को लेकर यह बहस करीब 5 दशक पुरानी है कि विकास किस कीमत पर होना चाहिए। साल 1976 में, गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में गठित कमिटी ने जोशीमठ को बचाने के लिए फौरन कुछ कदम उठाने की सिफारिश की थी- इनमें संवेदनशील जोन में नए निर्माण पर रोक और हरियाली बढ़ाना प्रमुख था। 49 साल बाद आज वह रिपोर्ट पूरे पहाड़ के लिए प्रासंगिक हो चुकी है।
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