राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने अतीत में कई बार सूखे और अकाल की मार झेली है, लेकिन इनमें भी सन 1899-1900 में पड़ा छप्पनिया अकाल एक ऐसी त्रासदी थी, जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। यह अकाल केवल खाद्यान्न की कमी नहीं, बल्कि मानवता के सबसे बड़े संकट के रूप में दर्ज है, जब लोग पत्ते, पेड़ की छाल, यहां तक कि मिट्टी और मरे जानवर तक खाने को मजबूर हो गए थे।
क्या था छप्पनिया अकाल?
इस अकाल को "छप्पनिया" इसलिए कहा गया क्योंकि यह विक्रमी संवत 1956 (1899 ई.) में पड़ा था। यह त्रासदी खासतौर पर राजस्थान, गुजरात, बुंदेलखंड, मराठवाड़ा और विदर्भ में सबसे अधिक गंभीर थी। मानसून पूरी तरह विफल रहा और लगातार सूखा पड़ने से फसलें चौपट हो गईं। खेतों में हरियाली की जगह धूल उड़ने लगी और कुंए, तालाब, नदी सब सूख गए।
भूख की क्रूरता: वृक्ष, छाल और मवेशियों के चारे तक खा गए लोग
जब अनाज खत्म हो गया, तब लोग नीम, बबूल और खेजड़ी जैसे पेड़ों की पत्तियां और छाल तक खाने लगे। कई स्थानों पर लोगों ने वृक्षों की जड़ें पीसकर आटा बनाया और उसे खाने की कोशिश की। इससे पेट में भयंकर रोग फैलने लगे। मवेशियों के लिए रखा गया सूखा चारा भी इंसानों का भोजन बन गया।अनेक रिपोर्टों और इतिहासकारों के अनुसार, इस भीषण अकाल के दौरान लोग खाली पेट मरते जा रहे थे। गांवों में भूख से हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो चुके लोग इधर-उधर पड़े मिलते थे। बच्चे कुपोषण से पीले पड़ चुके थे, और बूढ़े दम तोड़ रहे थे।
मृत्यु का तांडव और सामूहिक पलायन
इस अकाल ने जनसंख्या पर भी भयानक असर डाला। हजारों गांवों से लोग अपने परिवारों को लेकर शहरों, रेल पटरी के किनारे, मंदिरों और धर्मशालाओं में शरण लेने निकल पड़े। कई लोग रास्ते में ही भूख और प्यास से दम तोड़ गए।राजस्थान के ग्रामीण इलाकों से हजारों की संख्या में लोगों ने जोधपुर, बीकानेर और जयपुर जैसे शहरों की ओर पलायन किया। वहां भी हालात बेहतर नहीं थे, क्योंकि शहर पहले से ही अकाल पीड़ितों से भर चुके थे। सरकारी राहत कार्य बेहद सीमित और अनियमित थे, जिससे आम जन को कोई खास राहत नहीं मिल पाई।
सत्ता और समाज की भूमिका
ब्रिटिश सरकार की नीतियां इस त्रासदी में और भी क्रूर साबित हुईं। जबकि लोग भूख से तड़प रहे थे, तब भी अनाज गोदामों में भरा पड़ा था, जिसे निर्यात किया जा रहा था या अंग्रेजी अफसरों के लिए सुरक्षित रखा गया था। स्थानीय स्तर पर राहत शिविरों की स्थापना हुई जरूर, लेकिन वहां तक पहुंचना ही एक चुनौती थी।कुछ राजाओं और जागीरदारों ने अपने स्तर पर मदद करने की कोशिश की, जैसे बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह ने कुछ स्थानों पर राहत शिविर और प्याऊ स्थापित कराए, लेकिन यह प्रयास समूचे संकट के सामने बेहद छोटे साबित हुए।
अकाल की छाया में सामाजिक विघटन
अकाल केवल भूख की बात नहीं थी, इसने समाज के ढांचे को भी बुरी तरह तोड़ दिया। कई गांवों में चोरी, हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं बढ़ गईं। जब पेट की आग बेकाबू हो जाती है, तब इंसानियत भी दम तोड़ देती है – यह छप्पनिया अकाल ने साबित कर दिया।अकाल के चलते हजारों महिलाओं ने अपने बच्चों के साथ आत्महत्या कर ली, क्योंकि वे उन्हें तड़पते हुए नहीं देख पा रही थीं। कई स्थानों पर माताएं अपने मृत बच्चों को गोद में लेकर घूमती थीं, क्योंकि वे मान नहीं पाती थीं कि बच्चा मर चुका है।
छप्पनिया अकाल की विरासत
आज छप्पनिया अकाल को याद करना केवल इतिहास खंगालना नहीं है, बल्कि मानवता की सबसे बड़ी सीख लेना भी है। इस अकाल ने बताया कि जब प्रकृति और शासन दोनों साथ छोड़ दें, तो आम इंसान किस हद तक टूट सकता है।राजस्थान और गुजरात के कई लोकगीत, कहावतें और लोककथाएं आज भी इस अकाल को याद करती हैं। “अकाल पड़्यो छप्पनियों, हाड मां हाड न रहे” जैसी कहावतें आज भी लोगों की जुबान पर हैं, जो उस दौर की कष्टकारी स्मृति को जीवित रखती हैं।
छप्पनिया अकाल एक ऐसी चेतावनी है जो हमें याद दिलाती है कि प्राकृतिक आपदाएं केवल जलवायु संकट नहीं होतीं, वे सामाजिक और मानवीय आपातकाल भी होती हैं। यदि समय रहते शासन, समाज और तकनीक मिलकर समाधान नहीं निकालते, तो लाखों जिंदगियां मिट सकती हैं।आज जब जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे संकट हमारे सामने हैं, तब छप्पनिया अकाल जैसी घटनाओं को याद करना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है – ताकि हम फिर कभी ऐसी त्रासदी के साक्षी न बनें।
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