राजस्थान की ऐतिहासिक धरोहरों में कुंभलगढ़ किला एक ऐसा नाम है, जो ना केवल अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि अपने बहादुर इतिहास और युद्धों के लिए भी जाना जाता है। अरावली की पहाड़ियों में बसा यह दुर्ग भारत के सबसे मजबूत किलों में से एक माना जाता है। मेवाड़ के महान शासक महाराणा कुंभा द्वारा 15वीं शताब्दी में बनवाया गया यह किला इतिहास में कई बड़े आक्रमणों और घमासान युद्धों का साक्षी रहा है।
कुंभलगढ़ की स्थापत्य विशेषता और रणनीतिक स्थिति
कुंभलगढ़ किला उदयपुर से लगभग 80 किलोमीटर दूर राजसमंद जिले में स्थित है। इसकी सबसे खास बात है इसकी विशाल प्राचीर, जिसकी लंबाई लगभग 36 किलोमीटर है – यह चीन की दीवार के बाद दुनिया की दूसरी सबसे लंबी दीवार मानी जाती है। यह किला समुद्र तल से लगभग 1100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जिससे इसकी सुरक्षा और भी मजबूत होती है।अपनी रणनीतिक स्थिति के कारण कुंभलगढ़ किला मेवाड़ राज्य के लिए रक्षात्मक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। यह न केवल शत्रुओं के आक्रमण से मेवाड़ की सुरक्षा करता था, बल्कि संकट के समय शाही परिवार के लिए एक सुरक्षित शरणस्थली भी था।
मुगल और दिल्ली सल्तनत के आक्रमण
इतिहासकार बताते हैं कि कुंभलगढ़ किले पर कई बार दिल्ली सल्तनत और मुगलों ने कब्जा करने की कोशिश की। विशेषकर अकबर के शासनकाल में यह किला मुगलों की नजरों में आ गया था, क्योंकि यह मेवाड़ के राजाओं को संरक्षण देने वाला प्रमुख किला था।1576 में हल्दीघाटी युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप को मेवाड़ छोड़ना पड़ा, तब उन्होंने कुंभलगढ़ को ही अपना गुप्त ठिकाना बनाया। इस कारण मुगल सेनापति शाहबाज खान ने अकबर के आदेश पर इस किले पर चढ़ाई की। हालांकि, कठिन भौगोलिक स्थिति और मजबूत किलेबंदी के कारण मुगलों को इसे जीतने में भारी कठिनाई हुई।
कुंभलगढ़ का वह ऐतिहासिक क्षण
इतिहास के पन्नों में एक घटना बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है जब कुंभलगढ़ किला पहली और अंतिम बार शत्रुओं के अधीन हुआ था। कहा जाता है कि यह 1577 में हुआ, जब अकबर ने विशाल सैन्य शक्ति के साथ किले पर हमला किया और लंबी घेराबंदी के बाद किले को अपने अधीन कर लिया। हालांकि यह विजय अल्पकालिक रही और कुछ ही वर्षों में मेवाड़ की शक्तियों ने इसे पुनः हासिल कर लिया।
कुंभलगढ़ और राणा प्रताप का गहरा नाता
कुंभलगढ़ किले की ऐतिहासिक महत्ता इस बात से और भी बढ़ जाती है कि यहीं पर 1540 ई. में मेवाड़ के वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। यही कारण है कि यह किला मेवाड़ की वीरता और स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया। जब भी मुगलों का दमन बढ़ा, कुंभलगढ़ ने प्रतिरोध का मजबूत आधार तैयार किया।
मारवाड़ और मेवाड़ के संघर्ष में भूमिका
कुंभलगढ़ किला केवल मुगलों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि राजपूतों के आपसी संघर्षों में भी कई बार युद्धभूमि बना। विशेषकर मारवाड़ (जोधपुर) और मेवाड़ (उदयपुर) के बीच सीमाओं को लेकर जो विवाद होते थे, उनमें कुंभलगढ़ की भूमिका निर्णायक रही। कभी यह किला सामरिक दृष्टि से मेवाड़ की सीमा रेखा बनता, तो कभी युद्ध के लिए अग्रणी मोर्चा।
किले के आंतरिक किलेबंदी और युद्ध तकनीक
इतिहासकारों के अनुसार, कुंभलगढ़ की दीवारें इतनी चौड़ी थीं कि उन पर एक साथ पांच घोड़े दौड़ सकते थे। इसके अंदर 360 से अधिक मंदिर हैं, जिनमें 300 जैन मंदिर और 60 हिन्दू मंदिर शामिल हैं। युद्धकाल में सैनिकों, घोड़ों और अन्य आवश्यक वस्तुओं को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की पूरी व्यवस्था इस किले में थी।इसके अलावा किले की संरचना इस तरह से की गई थी कि दुश्मनों को भ्रमित किया जा सके। पहाड़ियों के बीच बनी हुई संरचना दुश्मनों को भ्रम में डाल देती थी, और रक्षकों को लाभ मिलता था।
आज भी मौजूद है शौर्य का प्रतीक
आज यह किला न केवल राजस्थान बल्कि भारत के इतिहास में वीरता, स्वतंत्रता और रणनीतिक बुद्धिमत्ता का प्रतीक बन चुका है। हर साल हजारों पर्यटक इस दुर्ग को देखने आते हैं और इसकी प्राचीरों से उस इतिहास को महसूस करने की कोशिश करते हैं जिसमें वीरता की गूंज आज भी सुनाई देती है।
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